भारत के प्रधान न्यायाधीश (Chief Justice of India)बी.आर. गवई ने हाल ही में एक ऐसे मामले पर टिप्पणी की है, जो लोकतंत्र, संविधान और कानून के शासन को केंद्र में लाता है। सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रतिशोध की भावना से की जा रही निजी संपत्तियों की तोड़फोड़ पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा है कि “सरकारें न्यायपालिका की जगह नहीं ले सकतीं और कार्यपालिका न तो जज बन सकती है, न जूरी और न ही जल्लाद।” यह टिप्पणी सीजेआई गवई ने मिलान अपीलीय न्यायालय (Milan Appellate Court) में दिए अपने संबोधन में की, जो भारत के संविधान के 75 वर्षों पर केंद्रित था।
बिना दोष सिद्ध हुए तोड़फोड़: कानून का मखौल
सीजेआई गवई ने सुप्रीम कोर्ट के उस हालिया फैसले का जिक्र किया जिसमें सरकारों द्वारा दोष सिद्ध हुए बिना ही अभियुक्तों के घरों और दुकानों को ध्वस्त कर दिए जाने की घटनाएं सामने आई थीं। उन्होंने स्पष्ट किया कि ऐसे विध्वंस ‘कानून के शासन’ (Rule of Law) और अनुच्छेद 21 (Right to Life and Personal Liberty) के तहत नागरिकों को मिले आश्रय के मौलिक अधिकार का सीधा उल्लंघन करते हैं। न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि यह स्थिति बेहद खतरनाक है जहां कार्यपालिका अपने हाथों में न्याय प्रक्रिया ले रही है। बिना किसी न्यायिक निर्णय के अगर किसी व्यक्ति की संपत्ति को ध्वस्त किया जाता है, तो यह लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है।
एग्जीक्यूटिव न बने न्यायाधीश : सीजेआई की तीव्र टिप्पणी
न्यायमूर्ति गवई ने दो टूक कहा कि “कोई भी सरकार या प्रशासन अपने आपको न्यायाधीश, जूरी और जल्लाद नहीं मान सकता। भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को न्याय पाने का अधिकार देता है और वह भी निष्पक्ष प्रक्रिया के तहत।” उन्होंने कहा कि अदालतों का कार्य है यह तय करना कि कौन दोषी है और कौन नहीं, न कि कार्यपालिका का। यह बयान विशेष रूप से उन घटनाओं की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण है जिनमें हाल के वर्षों में कुछ राज्यों में कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर विरोध कर रहे लोगों के घर बुलडोज़र से गिरा दिए गए।
संवैधानिक गारंटी सिर्फ आज़ादी नहीं, गरिमा की रक्षा भी
सीजेआई गवई ने इस दौरान भारतीय संविधान की व्यापकता और उसकी मानवतावादी भावना पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि संविधान न केवल नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करता है, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को गरिमा, सुरक्षा और भौतिक कल्याण का अधिकार मिले – खासतौर से कमजोर और वंचित वर्गों को। उन्होंने यह भी जोड़ा कि भारत की न्यायपालिका ने समय-समय पर संवैधानिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए उनके दायरे का विस्तार किया है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि आम नागरिक को न्याय सुलभ हो।
75 वर्षों की संवैधानिक यात्रा : आलोचकों को दिया करारा जवाब
अपने संबोधन में सीजेआई गवई ने यह भी कहा कि भारतीय संविधान की 75 वर्षों की यात्रा यह सिद्ध करती है कि यह केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक क्रांति का आधार है। उन्होंने कहा कि स्वतंत्र भारत में संविधान ने न केवल शासन की रूपरेखा तय की, बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक न्याय और अधिकार पहुंचाने की नींव रखी। उन्होंने कहा कि “भारतीय संविधान के आलोचकों का मानना था कि यह कभी काम नहीं करेगा, लेकिन आज हम देख सकते हैं कि इसने भारत में सामाजिक न्याय और समानता की मजबूत नींव रखी है।”
संसद और न्यायपालिका – दोनों ने निभाई अहम भूमिका
सीजेआई गवई ने जोर देकर कहा कि 21वीं सदी में संसद और न्यायपालिका दोनों ने सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। उन्होंने कहा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और काम जैसे मूलभूत अधिकारों को व्यावहारिक स्वरूप देने में दोनों संस्थाओं की भूमिका बराबर रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने न्यायपालिका द्वारा लिए गए फैसलों का उदाहरण देते हुए कहा कि ये निर्णय न केवल संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा करते हैं, बल्कि शासन के मूल्यों को भी बनाए रखते हैं।
‘लोकतंत्र की प्रहरी है न्यायपालिका’
सीजेआई बी.आर. गवई का यह वक्तव्य लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की केंद्रीय भूमिका को स्पष्ट करता है। यह संदेश न केवल सरकारों को चेतावनी है, बल्कि नागरिकों को यह भरोसा भी देता है कि संविधान की रक्षा करने वाली संस्था सजग है। प्रतिशोध की भावना से उठाए गए किसी भी कदम को अगर कानून के दायरे से बाहर जाकर अंजाम दिया जाएगा, तो वह संविधान और लोकतंत्र दोनों की आत्मा के विरुद्ध होगा। ऐसे में यह वक्तव्य आने वाले समय में न केवल न्यायिक दिशा को प्रभावित करेगा, बल्कि कार्यपालिका की मर्यादाओं की भी पुनः परिभाषा तय करेगा।